Tuesday, October 22nd, 2024

Did Ambedkar ask God… Fierce debate on the words of the oath and the option of ‘affirmation with sincerity’ found

New Delhi: “I… who have been elected a member of the Lok Sabha, do swear in the name of God/solemnly affirm that I will bear true faith and allegiance to the Constitution of India as by law established. I will uphold the sovereignty and integrity of India. And I will faithfully discharge the duties of the office which I am about to assume.” One by one all the MPs are taking this oath in the Parliament. In the first meeting of the 18th Lok Sabha, the House is echoing with these words of oath. Some MPs are taking the oath in the name of God towards the Constitution and the dignity of their office, while some are taking the oath in the name of truth. Have you ever wondered why there are only these two options for oath? Why does no one take oath in the name of religious scriptures, God, Constitution or anyone else? There is a very interesting story behind this.

Fierce debate over oath words

You know that it took 2 years, 11 months and 18 days to make the Constitution. The Constituent Assembly held serious and detailed discussions on each and every topic in these 114 days. When it came to the oath of MPs, there was a lot of discussion on what should be its format. As the chairman of the drafting committee, Dr. Bhimrao Ambedkar prepared a draft of the oath of MPs. In the draft of the Constitution that was prepared, the subject of oath was kept in the third schedule. It was discussed in the Constituent Assembly on 26 August and 16 October 1949. It includes affirmations and oaths to be taken by persons holding the posts of Union Minister, Minister of State, Member of Parliament, Member of State Legislature, Judge of Supreme Court and High Court.

The members of the Constituent Assembly gave their own arguments

Several members in the Constituent Assembly put forth their arguments on this schedule, particularly on the matter of invoking the name of God in oaths and affirmations. Dr. Ambedkar moved an amendment that gave people the option of taking oath in the name of ‘God’. Sardar Bhupendra Singh Mann, a Sikh member from Punjab, opposed the move on moral and religious grounds. Surprisingly, the member insisted that since God was not a member of the Assembly and his/her consent had not been taken, the word ‘God’ could not be included in the oath.

Demand to give option of God before integrity

Another member said that since the people in these posts would perform secular functions, it makes no sense to ask them to take the name of God while taking the oath. he/she also argued that in politics one has to do non-religious work, so it is inappropriate to include ‘God’ in it. Some members of the Assembly were also adamant that the oath taking should take place before the oath taking ceremony, in which ‘God’ should not be mentioned. They believed that placing the word ‘God’ later means that its importance has diminished. One member argued strongly in favour of this change. he/she said that in the Constitution made according to the choice of the Indian people, the oath should begin with taking oath in the name of ‘God’. The amendment ensuring this change was finally accepted by the Constituent Assembly. The revised Third Schedule from the Assembly was adopted in the Constitution on 26 August 1949. The schedule was discussed again on 16 October 1949, but no significant change was made.

Dr. Ambedkar presented the amendment proposal

Let us know what each member said on the words of the oath on 26 August 1949. Here we are presenting the arguments of some prominent members, which will make you feel happy after reading them. The debate on this topic started when an amendment was presented by Dr. Ambedkar. Dr. Ambedkar said-

“The Honourable Dr. B. R. Ambedkar: Sir, I beg to move that “In Form 1 of the declarations in the Third Schedule, the words ‘Solemnly affirm (or swear)’ [सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं (अथवा शपथ लेता हूं)] For the words and brackets the following shall be substituted :-

‘Solemnly affirm’/Swear in the name of God’ Sir, I also move that “In Form 2 of the declarations in the Third Schedule, the words ‘Solemnly affirm (or swear) [सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं (अथवा शपथ लेता हूं) शब्दों और कोष्ठकों के स्थान पर निम्नलिखित रखा जाए :- ‘Solemnly affirm’ (सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं)/‘Swear in the name of God’ (ईश्वर की शपथ लेता हूं) “

तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 3 में (क) ‘declaration (घोषणा)’ शब्द के स्थान पर ‘ affirmation or oath’ (प्रतिज्ञान अथवा शपथ ) ‘ शब्द रखे जाएं।

(ख) ‘solemnly and sincerely promise and declare’ (सत्य निष्ठा और सच्चे हृदय से प्रतिज्ञा और घोषणा करता हूं)’ शब्दों के स्थान पर निम्नलिखित
शब्द रख जाएं: ‘Solemnly affirm’ (सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं) ‘Swear in the name of God’ (ईश्वर की शपथ लेता हूं) ‘

इतना ही नहीं, शपथ पत्र के शीर्षक पर भी चर्चा हुई और डॉ. आंबेडकर ने कहा, “तृतीय अनुसूची में ‘Forms of declarations (घोषणाओं के प्रपत्र )’
के स्थान पर ‘Forms of affirmations or oaths (प्रतिज्ञानों अथवा शपथों के प्रपत्र)’ शीर्षक रखा जाए।”

ईश्वर के नाम शपथ लेने के विरोध में लंबी दलील

फिर एक सदस्य ने कहा कि ‘सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं’ से पहले ‘ईश्वर की शपथ लेता हूं’ आना चाहिए। यानी विकल्पों में ‘सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान’ के ऊपर ‘ईश्वर की शपथ लेता हूं’ को प्राथमिकता दिया जाना चाहिए। तभी पूर्वी पंजाब के प्रतिनिधि सरदार भूपेंद्र सिंह मान ने ईश्वर के नाम पर शपथ लेने का विकल्प दिए जाने पर आपत्ति प्रकट की। उन्होंने अपनी सोच के पक्ष में लंबा तर्क दिया। उन्होंने कहा-

श्रीमान मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करता हूं कि, ‘संशोधनों पर संशोधनों की सूची (1) (पांचवा सप्ताह) के संशोधन संख्या 56 से 63 तक में, तृतीय अनुसूची में शपथ अथवा प्रतिज्ञान के प्रपत्र में से (प्रस्तावित शब्दों में से ) Swear in the name of God ( ईश्वर की शपथ लेता हूं)’ शब्द निकाल दिए जाएं। इस संशोधन को उपस्थित करने में मेरा उद्देश्य यह है कि शपथ लेने में ईश्वर का नाम नहीं लिया जाना चाहिए। सभा के समक्ष ईश्वर का नाम हटा देने का प्रस्ताव रखकर मैं ईश्वरत्व का विरोध नहीं कर रहा हूं। धार्मिक तथा नैतिक दृष्टि से तथा संविधान के महत्व को दृष्टि में रखकर भी मैं शपथ से ईश्वर का नाम हटा देने के लिये सभा से अनुरोध कर रहा हूं।

जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो हम प्रायः यह शपथ लेते थे “ईश्वर की शपथ, यह सच है”, “ईश्वर की शपथ, मैं यह करूंगा”, “ईश्वर की शपथ, मैं यह नहीं करूंगा”, “ईश्वर की शपथ, यह गलत है” इत्यादि, और हमारे अध्यापक तथा बड़े बूढ़े हमसे हमेशा कहते थे कि शपथ लेने की आदत अच्छी आदत नहीं है। मेरी समझ में नहीं आता कि उस समय जो आदतें बुरी आदतें समझी जाती थीं वे अब हमारे बड़े होने पर अच्छी आदतें कैसे समझी जाने लगी हैं। अन्य प्रकार की शपथ लेना अच्छा नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से उसके घोषणा करने अथवा सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करने पर भी ईश्वर की शपथ लेने को कहा जाए तो वह कहेगा “मैं सच कहूंगा। आपको मेरा विश्वास करना चाहिये। इसकी आवश्यकता नहीं कि मैं ईश्वर की शपथ लूं।” मेरे विचार से किसी व्यक्ति से ईश्वर की शपथ लेने को कहना उसका अपमान करना है । श्रीमान, मेरा यह भी विचार है कि शपथ में ईश्वर का नाम लेकर ईश्वर का निरादर करना है। इसके अतिरिक्त मैं यह कह सकता हूं कि किसी व्यक्ति से ईश्वर की शपथ लेने को कहना उसका अविश्वास करना है।

मैं कह नहीं सकता कि ऐसे महत्वपूर्ण विपत्र के सम्बन्ध में मसौदा समिति तथा उसके सभापति ने ईश्वर की इच्छा जानने का प्रयास किया है या नहीं। मुझे इस सभा की सर्वसत्ता पर कोई सन्देह नहीं है किन्तु श्रीमान आपकी सर्वसत्ता की सीमा इतनी विस्तृत नहीं है कि वह ईश्वर के लिये भी बन्धक हो। सम्भव है। वह इसके लिये सहमत न हो। बिना उसकी इच्छा को जाने हुए हम कई स्थानों पर ईश्वर के नाम को रख रहे हैं।

ईश्वर न सदन के सदस्य, ना उनसे पूछा गया…

श्री कामत के संशोधन के अधीन संविधान के खण्डों में कुछ स्थलों पर हम ईश्वर का नाम रख चुके हैं। हम शपथ के लिये भी ईश्वर के नाम को रख रहे हैं। कल आप उसके नाम को प्रस्तावना में भी स्थान देने जा रहे हैं। मुझे सन्देह है कि ईश्वर उसे पसंद करेगा या नहीं। आपके लिये यह उत्कृष्ट संविधान हो सकता है किन्तु सम्भव है कि ईश्वर इसे पसंद न करे। सम्भव है वह इस संविधान में अपना नाम रखवाना ही न चाहे। सम्भव है कि वह साम्यवादी ईश्वर हो अथवा प्रबल समाजवादी प्रवृत्ति का हो। मैं सदस्यों से तथा डॉ. अम्बेडकर से कहता हूं कि यदि बिना उसकी इच्छा जाने हुए आप उसका नाम रख देते हैं और कल वह यह विचार करता है कि वह इस संविधान से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखेगा तो इस संविधान का क्या होगा? मैं यह प्रार्थना करता हूं कि उसके नाम का संविधान में विभिन्न प्रकार से उल्लेख करने तथा उसका संविधान से नाता जोड़ने के पूर्व आप यह जान लें कि उसकी क्या इच्छा है।

यदि डॉ. अम्बेडकर की ईश्वर तक पहुंच न हो तो, श्रीमान, मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप कृपा करके उसकी इच्छा का पता लगाएं और सभा को यह सूचित करें कि वह इसके लिए सहमत है। आखिर शपथ का सम्बन्ध दो पक्षों से होता है- एक वह जो शपथ लेता है और दूसरा वह जिसकी शपथ ली जाती है। वास्तव में मेरा यह निवेदन है कि यह एक औचित्य प्रश्न है कि किसी ऐसे व्यक्ति के नाम का उल्लेख संविधान में होना चाहिए या नहीं, जो सभा का सदस्य न हो और जिसकी सहमति भी प्राप्त न की गई हो । इसका बहुत संवैधानिक महत्व है। कल यदि वह सहमत न हो और आपके संविधान से नाता तोड़ दे तो सारा परिश्रम निष्फल चला जाएगा।

सच्चे हृदय से शपथ लेने पर जोर

वहीं, प. बंगाल से मुस्लिम सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने प्रस्ताव रखा कि शपथ में ‘सत्यनिष्ठा से शपथ’ के साथ-साथ ‘सच्चे हृदय से शपथ’ लिए जाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि सदस्य शपथ लेते हुए यह कहें कि सत्यनिष्ठा और सच्चे हृदय से शपथ लेता/लेती हूं। उन्होंने अपना विचार रखते हुए कहा, ‘अध्यक्ष महोदय, मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करता हूं कि, “संशोधनों पर संशोधनों की सूची 1 ( पांचवा सप्ताह) के संशोधन संख्या 56 के सम्बन्ध में, तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 1 में, ‘Solemnly (सत्य निष्ठा से)’ शब्दों के पश्चात् ‘and sincerely (और सच्चे हृदय से ) शब्द रखे जाएं।” उन्होंने इस विचार के पीछे लंबा तर्क दिया। उन्होंने कहा-

मेरे पहले संशोधन के फलस्वरूप एक बहुत महत्वपूर्ण संविधानिक प्रश्न उठता है और वह यह है कि क्या मंत्रियों को सदस्यों की हैसियत से नहीं बल्कि मंत्रियों की हैसियत से, एच्चे हृदय से काम करना चाहिये या नहीं। सभा कृपा करके यह देखें कि घोषणाओं के आठ प्रपत्र हैं। संघ के मंत्रियों के सम्बन्ध में दो पत्र हैं। प्रपत्र 1 और प्रपत्र 21 पहली शपथ पद- शपथ है और दूसरी शपथ गोपनीयता शपथ है। इसके अतिरिक्त राज्यों के मंत्रियों के सम्बन्ध में भी दो प्रपत्र हैं, अर्थात् प्रपत्र 5 और प्रपत्र 6, जिनमें से एक पद शपथ के सम्बन्ध में और दूसरा गोपनीयता – शपथ के सम्बन्ध में है। इन सभी दशाओं में मंत्रियों को अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के लिये “सत्यनिष्ठा” से शपथ लेनी है अथवा प्रतिज्ञान करना है और यह आवश्यक नहीं है कि वह यह बच्चे हृदय से कर।

यह विचार किया जा सकता है कि “सच्चे हृदय से” शब्दों को निकाल देने से वर्तमान प्रथा में कोई अन्तर नहीं आयेगा। माननीय सदस्यों से मेरा अनुरोध है कि संसद के सदस्यों तथा न्यायाधीशों के लिये जो शपथों के प्रपत्र रखे गये हैं। उन पर विचार किया जाये। संसद के सदस्यों को जो घोषणा करनी होगी वह प्रपत्र 3 में दी गई है। उन्हें “सत्यनिष्ठा से तथा सच्चे हृदय से ” घोषणा करनी है। न्यायाधीशों ने जो प्रतिज्ञान करना है वह प्रपत्र 4 उल्लिखित है। उन्होंने भी यह घोषणा करनी कि वे अपने कर्तव्य का पालन “सत्यनिष्ठा तथा सच्चे हृदय से” करेंगे। इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को प्रपत्र 8 के अधीन यह घोषणा करनी है कि वे अपने कर्तव्यों का पालन “सत्यनिष्ठा और सच्चे हृदय से करेंगे।

शब्दावलियों को बहुत समझ बुझ कर चुना गया है। एक शब्दावली संसद के सदस्यों तथा राज्यों के विधान मंडलों के सदस्यों और संघ न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के सदस्यों के लिए है, जिन्हें अपने कर्तव्यों का पालन “सत्यनिष्ठा और सच्चे हृदय” से करना है किन्तु संघ के तथा राज्य के मंत्रियों पर यह शब्दावली लागू नहीं होती। मैं यह जानना चाहता हूं कि मंत्रियों के सम्बन्ध ये शब्द जान बूझ कर नहीं रहने दिए गए हैं अथवा अनजाने। संसद के तथा राज्यों के विधान मंडलों के सदस्यों और न्यायाधीशों के सम्बन्ध में जिस सावधानी से “सच्चे हृदय से” शब्दों को रखा गया है उससे ज्ञात होता है कि अन्य स्थलों से ये शब्द जान बूझकर निकाल दिए गए हैं। मैं इस सभा के सदस्यों से जानना चाहता हूं कि क्या उनका विचार यह है कि जब तक वे विधान मंडल के सदस्य बने रहेंगे तब तक वे अपने कर्तव्यों का पालन सत्यनिष्ठा से तथा “सच्चे सदस्य से” करेंगे किन्तु जैसे ही वे मंत्रिमंडल की गद्दियों पर आरूढ़ होंगे, उनको “सच्चे हृदय से काम करने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी। क्या विचार यही है?

यदि बात यही है तो यह आधुनिक विचार-धारा के अनुरूप ही है। वास्तव में मंत्रियों को सच्चे हृदय से काम करने की आवश्यकता है। उन्हें तो कपटी होने की आवश्यकता है। मैं कह सकता हूं कि कुछ व्यक्तियों का कपट भी सद्गुण समझा जाता है। राधा ने श्रीकृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा था: “निपट कपट तुम श्याम।” श्याम तुम कपटी हो। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। क्या हम भी अपने मंत्रियों को ‘निपट कपट तुम श्याम’ कह कर संबोधित करेंगे और यह कहेंगे आप हमारे प्रभु हैं किन्तु निपट कपटी हैं?” यह शपथ इसी प्रकार की है। मैं जानना चाहता हूं कि क्या “सच्चे हृदय से काम करना” शब्दावली स्वतन्त्र भारत के किसी मंत्री के सम्बन्ध में प्रयोग में नहीं आ सकती? मैं जानता हूं कि मंत्रियों को राजनयिक होना चाहिए, चतुर होना चाहिए, किन्तु यह नहीं जानता था कि चूंकि उन्हें राजनयिक होना चाहिए इसलिए उन्हें सच्चे हृदय से काम करने की आवश्यकता नहीं।

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